नई दिल्ली, 23 सितंबर (आईएएनएस)। दिल्ली हाईकोर्ट का कहना है कि लिंग-संवेदनशील भाषा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, लेकिन लैंगिक रूढ़िवादिता को कायम रखने वाले और लिंग के आधार पर व्यक्तियों की गरिमा तथा अधिकारों को कमजोर करने वाले अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल कानूनी दस्तावेजों और दलीलों में नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने एक महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें शादी का झूठा झांसा देकर उसके साथ बलात्कार करने के आरोपी व्यक्ति को निचली अदालत के अग्रिम जमानत दिए जाने को चुनौती दी गई थी।
हालांकि, अदालत ने अग्रिम जमानत रद्द नहीं की, लेकिन आरोपी के अपने जवाबी हलफनामे में महिला के खिलाफ इस्तेमाल की गई अपमानजनक भाषा पर कड़ी आपत्ति जताई।
न्यायमूर्ति शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में लॉन्च की गई ‘हैंडबुक ऑन कॉम्बैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स’ का हवाला देते हुए दलीलों, आदेशों और निर्णयों का मसौदा तैयार करने में इसके उपयोग का सुझाव दिया।
अदालत ने कहा कि कानूनी पेशेवर अपनी भाषा, कार्यों और बातचीत में लैंगिक रूढ़िवादिता को चुनौती देकर और त्यागकर स्थापित पूर्वाग्रहों (पक्षपात) को खत्म करने में योगदान दे सकते हैं।
अदालत ने कानूनी समुदाय से लैंगिक संवेदनशीलता की संस्कृति को बढ़ावा देने और पेशेवर आचरण एवं कानूनी दस्तावेजों दोनों में निष्पक्षता तथा सम्मान के मूल्यों को बनाए रखने का आह्वान किया।
आपराधिक कानूनी प्रणाली की प्रतिकूल स्वभाव को पहचानते हुए अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि भाषा को आक्रामकता की सीमा पार नहीं करनी चाहिए और यह हमेशा कानूनी पेशे की गरिमा के अनुरूप होनी चाहिए।
आरोपी ने महिला के चरित्र और वैवाहिक स्थिति के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करते हुए अनुचित भाषा का इस्तेमाल किया था। न्यायमूर्ति शर्मा ने ऐसी भाषा के इस्तेमाल की निंदा करते हुए कहा कि यह कानूनी दलीलों में अपेक्षित भाषा की अनुमेय सीमाओं से परे है।
अदालत ने कहा कि लिंग के आधार पर किसी व्यक्ति की गरिमा को कमजोर करने वाली अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल समानता, गरिमा और सम्मान के सिद्धांतों के साथ अनुचित है।
–आईएएनएस
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